हिमाचल प्रदेश के जनजातीय क्षेत्रों में 95 किस्मों की दुर्लभ जड़ी-बूटियां विलुप्त होने के कगार पर हैं। इनमें 14 जड़ी-बूटियां, जैसे नागछतरी, जंगली लहसुन, चिलगोजा, काला जीरा, रतन जोत, और सालम पंजा, जंगलों से लगभग 80-95% तक गायब हो चुकी हैं। यह जानकारी जीबी पंत राष्ट्रीय पर्यावरण अनुसंधान संस्थान मौहल, कुल्लू और कुमाऊं यूनिवर्सिटी नैनीताल के शोधकर्ता डॉ. ओम राणा के 2015-2024 के शोध में सामने आई है।
डॉ. राणा ने चंबा जिले के पांगी क्षेत्र की जैव विविधता पर गहराई से अध्ययन किया और पाया कि स्थानीय लोग अपनी आर्थिकी को मजबूत करने और दैनिक उपयोग के लिए इन जड़ी-बूटियों का अत्यधिक दोहन कर रहे हैं। बीज तैयार होने से पहले इनका कच्चा उपयोग और बड़े पैमाने पर दोहन जंगल में इनके उत्पादन को तेजी से घटा रहा है।
शोध में जिन 14 जड़ी-बूटियों के विलुप्त होने की स्थिति सामने आई, उनमें प्रमुख हैं:
- नागछतरी
- जंगली लहसुन
- चिलगोजा
- काला जीरा
- कडू पतीश
- शुआन
- थांगी (बादाम)
- रतन जोत
- चोरा
- पवाइन
- तिला
- सालम पंजा
- शिंगुजीरा
- सालम मिसरी
डॉ. ओम राणा ने कहा कि हिमाचल की जैव विविधता को बचाने के लिए सरकार, वन विभाग और जैव विविधता संरक्षण समितियों को तत्काल कदम उठाने होंगे। उन्होंने सुझाव दिया कि जड़ी-बूटियों के संरक्षण के लिए लोगों को जागरूक करने हेतु विशेष अभियान चलाना चाहिए।
डॉ. राणा के 10 वर्षों के शोध में पांगी क्षेत्र में 780 किस्मों के पेड़-पौधे और जड़ी-बूटियां पाई गईं। इनमें से 450 प्रकार के पेड़-पौधे दैनिक जीवन में उपयोग होते हैं। इनका इस्तेमाल इमारती लकड़ी, ईंधन, पशुचारा, दवाइयां, और कृषि उपकरण बनाने में किया जाता है।इसके अलावा, 121 किस्मों के खाद्य पौधों का भी पता चला, जिनका लोग भोजन में उपयोग करते हैं।